चंडीगढ़ में हर 15 के पीछे एक ड्रग एडिक्ट, पंजाब में 6 के पीछे एक ड्रग एडिक्ट
न बियर बार में आने वाले नशेडी शामिल, न स्टूडेंट्स और न ही पुलिस की सहायता
चंडीगढ़ में आमतौर पर कैमिस्ट व फार्मा नैकसस बेचता है बुप्रीनोरफीन, नशीली दवाइयां
एम4पीन्यूज| चंडीगढ
चंडीगढ़ में पायलट स्टडी करने के बाद इंडियन काऊंसिल मेडिकल रिसर्च से अप्रूवल के बाद पीजीआई साइकेट्री विभाग ने पंजाब के अन्य सरकारी अस्पताल के सहयोग से नशा की स्थितियों पर स्टडी की जो कि एम्स की पोड्स स्टडी से काफी हद तक मेल भी खाती है और गौर करने लायक बात यह भी है कि नशा स्थिति को समझने के लिए कई दायरों को सीमित भी किया गया जबकि पीजीआई के पास केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकार का सहयोग था।
अांकड़े चौंकाने वाले है और इससे पहले भी कई निजी संस्थाओं के साथ मिलकर अलग अलग विशेषज्ञों ने पंजाब की स्थिति पर अनुसंधान किया है। पीजीै आई ने अपनी यह रिसर्च केंद्र सरकार को सौंप दी है जिसमें साफ लिखा है कि 2.7 लाख की अाबादी पंजाब में नशे की शिकार है और इस नशे की वो अादी हो चुके है। अधिकतर लोग पुरुष हैं और ज्यादातर अफीम, भुक्की, चरस का इस्तेमाल हो रहा है। इसके बाद नंबर आता है नशीली इंजेक्शन का, जो कि गैरकानूनी पर बेचे जा रहे हैं।
स्ट्डी के लिए दी 200 रुपए रिचार्ज की रिश्वत
इस स्टडी के मुख्य संचालक साइकेट्री विभाग के प्रमुख डॉ. अजीत अवस्थी ने बताया कि ये स्टडी को पूरा करने में दो साल का वक्त लगा। 2016 तक यह स्टडी पूरी हो चुकी थी। इस दौरान नशे का इस्तेमाल करने वाले लोगों को बारे में मेडिकल तौर पर जानने के लिए जिन लोगों की सहायता ली गई उन्हें कईं बार रिश्वत देकर काम करवाया गया। इसके पीछे मंशा सिर्फ इतनी थी कि स्टडी में सहायता हो और मरीज को अपने बारे में बताने में कोई हिचक न हो क्योकि उनसे मिलाने वाला व्यकित वही का रहने वाला होता था और फोन रिचार्ज के लालच में वो बाकी लोगों को भी जानकारी देने के लिए मनाकर लाता था।
ज्यादातर होता है इंजेक्शन बुप्रीनोरफीन का इस्तेमाल
तकरीबन 78 हजार लोग नशीले इंजेक्शन का इस्तेमाल करते हैं और इनमें से बुप्रीनोरफीन इंजेक्शान का इस्तेमाल सबसे ज्यादा अधिक है। डॉ. अवस्थी ने बताया कि नशा करने वाले की उम्र 11 से 60 साल के बीच है। नशा उपलब्धि 77.6 फीसदी ड्रग डीलर और 59 फीसदी कैमिस्ट से प्राप्त की जा रही है। 97 फीसदी नशा उपयोग करने वाले लोग अपना इलाज करवाना चाहते हैं लेकिन सामाजिक दवाबों के कारण अस्पताल तक नहीं पहुंचते हैं।