एम4पीन्यूज। मुम्बई
हिन्दी सिनेमा के मशहूर फ़िल्मकार संजय लीला भंसाली की आने वाली फ़िल्म ‘पद्मावती’ बनने से पहले ही सुर्खियों में आ गई है. शुक्रवार को जयपुर में भंसाली पर राजपूत जाति से जुड़े एक संगठन करणी सेना ने हमला किया था. इनका आरोप है कि भंसाली ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश कर रहे हैं.
भंसाली की यह फ़िल्म रानी पद्मावती और तुर्क शासक अलाउद्दीन खिलज़ी की कथित प्रेम कहानी पर केंद्रित है. राजस्थान में राजपूत जाति से ताल्लुक रखने वाले कुछ लोगों का कहना है कि अलाउद्दीन और रानी पद्मावती के बीच कोई प्रेम संबंध नहीं था.
अचानक से 16वीं शताब्दी के हिन्दी साहित्य ‘पद्मावत’ की यह किरदार पद्मावती फिर से ज़िंदा हो गई है. कहा जा रहा है कि जिस पद्मावती पर विवाद है, दरअसल वह ऐतिहासिक नहीं साहित्यिक किरदार थी. हिंदू चरमपंथ अब मिथक नहीं रहाः अनुराग कश्यप फ़िल्म पद्मावती के सेट पर संजय लीला भंसाली के साथ मारपीट इसी मुद्दे पर बीबीसी संवाददाता रजनीश कुमार ने जेएनयू में मुगलकालीन इतिहास के प्रोफ़ेसर नजफ़ हैदर से बात की.
प्रोफेसर हैदर के अनुसार
संजय लीला भंसाली ने फ़िल्म को ऐतिहासिक बताया है और यही उनकी समस्या है. अगर आप ये कहें कि यह हिस्ट्री नहीं है यह फ़िक्शन है तो किसी को कोई ऐतराज न हो. ये सारी समस्या ही तब होती है जब आप इसे इतिहास के रूप में पेश करने की कोशिश करते हैं. ऐसा अपनी फ़िल्म को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए किया जाता है. इसके बाद जो दिल चाहता है, उसे दिखाते हैं. इनके पास क्रिएटिव लाइसेंस भी होता है. यहां यही विरोधाभास है.
अगर आप शुरू से ही इसे फिक्शन मानते हैं और थोड़ी बहुत ऐतिहासिक चीज़ों का इस्तेमाल भी करते हैं तो कोई दिक़्कत नहीं है. यदि आप इसे फिक्शन बताएंगे तो लोग इसे इतिहास के रूप में नहीं देखेंगे और उन्हें उस रूप में ग़ुस्सा भी नहीं आएगा. इसके साथ ही यह बात भी है कि असहमति को दिखाने का एक सभ्य तरीका होता है. इसमें उद्दंडता नहीं आनी चाहिए. किसी भी सभ्य समाज में यह स्वीकार्य नहीं होगा. हिन्दुस्तान में इस तरह की जो फ़िल्में बनाई जाती हैं उन्हें ऐतिहासिक बता दिया जाता है.
पद्मिनी का जो पूरी किस्सा है वो इतिहास है नहीं. 16वीं शताब्दी में एक साहित्य लिखा गया था. इसमें पद्मावती नाम के किरदार की चर्चा है. अलाउद्दीन के ज़माने में तो पद्मावती का कोई ज़िक्र ही नहीं है. पद्मावती एक साहित्यिक किरदार थी न कि ऐतिहासिक किरदार. इसका कोई ऐतिहासिक रूप नहीं है. लेकिन भारतीय जनमानस में पद्मावती को इतनी लोकप्रियता कैसे मिली?
हैदर बताते हैं- साहित्यिक चीज़ें ज़्यादा लोकप्रिय होती हैं. गंभीर ऐतिहासिक वाकये या उनकी व्याख्या आसानी से जनमानस में नहीं जगह बना पाते हैं. ऐसी प्रवृत्ति हर जगह है और यह हमारे देश में भी है. जो ज़्यादा दिलचस्प है वो ज़्यादा लोकप्रिय होगी और जिन वाकयों से दिलचस्पी पैदा नहीं होती है वे लोकप्रियता हासिल नहीं कर पातीं.
इतिहास के पाठ्यपुस्तक में पद्मावती की कोई भूमिका नहीं है. यह सच है कि 16वीं शताब्दी में हिन्दी साहित्य पद्मावत में मलिक मुहम्मद जायसी ने इस किरदार को ज़िंदा किया. हिन्दी साहित्य में पद्मावती की जगह है और साहित्य भी इतिहास का एक पार्ट होता है. हिन्दी साहित्य को पढ़ाने के लिए पद्मावती का विशेष रूप से इस्तेमाल करना चाहिए, लेकिन इतिहास के किताब में पद्मावती की कोई जगह नहीं है. यदि इतिहास की किताब में पद्मावती है तो यह भ्रमित करने वाला है.
मेरा शोध 14वीं और 16वीं शताब्दी पर है इसलिए मैं भरोसे के साथ कह सकता हूं कि पद्मावती एक काल्पनिक किरदार है. अलाउद्दीन ख़िलज़ी का जो चित्तौड़ पर मुकाबला है उसमें कहीं से भी पद्मिनी का कोई ज़िक्र नहीं मिलता है. उस वक़्त की कोई भी किताब उठा लें, उसमें कहीं भी ज़िक्र नहीं मिलता है. पद्मिनी के लोकप्रिय होने की वजह यह है कि स्थानीय राजपूत पंरपरा के तहत चारणों ने इस किरदार का खूब बखान किया. इस वजह से भी यह कथा काफ़ी लोकप्रिय हुई. पद्मिनी हमारी वाचिक परंपरा की उपज है और इसका प्रभाव किताबों से कहीं ज़्यादा होता है. इसकी काफी गहरी पैठ होती है. हमें इससे कोई समस्या भी नहीं है.
यदि पद्मिमी हमारे बीच किसी ऐतिहासिक किरदार के रूप में जनमानस में है तो इससे हमारे पाठ्यपुस्तकों की साख सवालों को घेरे में है. मलिक मुहम्मद जायसी ने जैसा दिखाया उसे आप ऐतिहासिक कहेंगे तो यह ग़लत होगा. 1607 ईस्वी में एक मशहूर इतिहास लिखा गया था, फ़रिश्ता. इसमें ग़ुलशने इब्राहिम ने पूरे एपिसोड की चर्चा की है. पहली बार किसी फ़ारसी की बड़ी क़िताब में पूरे एपिसोड को लिखा गया है. इसमें पद्मावती को इतिहास के रूप में पेश किया है, लेकिन यह पूरा का पूरा पद्मावत से लिया गया है.