एम4पीन्यूज|चंडीगढ़
आज 23 मार्च है यानि शहीदी दिवस। आज ही के दिन शहीदे आज़म भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी गई थी। 86 साल पहले आज ही के दिन शाम 7:30 बजे अंग्रेजी हुकूमत ने भगतसिंह,राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी थी। देश के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने वाले इन शहीदों को याद करते हुए आज का दिन शहीदी दिवस के रूप में मनाया जाता है।
शहीद-ए आज़म भगत सिंह का जन्म आज ही के दिन पंजाब प्रान्त के लायलपुर गांव (अब पाकिस्तान) में हुआ था। हालांकि कुछ लोगों का ये भी मानना है की उनका जन्म 27 सितम्बर 1907 को हुआ था। 13 अप्रैल 1919 को हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड ने उनके जीवन पर गहरा असर डाला और वह आज़ादी की लड़ाई से जुड़ गए। 1922 में जब गाँधी जी ने चौरी-चौरा हत्याकांड के बाद असहयोग आंदोलन वापस ले लिया तो उनका कांग्रेस और गाँधी की अहिंसावादी विचारधारा से मोह भंग हो गया।
साइमन कमीशन का विरोध करने पर अंग्रेजी हूकूमत ने लाला लाजपत राय पर लाठीचार्ज किया जिसमें वो बुरी तरह से घायल हो गए थे और इसकी वजह से उनकी मृत्यु हो गई थी। लाला जी की मृत्यु से सारा देश उत्तेजित हो उठा और चंद्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव व अन्य क्रांतिकारियों ने लालाजी की मौत का बदला लेने का निर्णय किया।
उनके जीवन से जुड़े कुछ पहलू :
1. 17 दिसंबर 1928 को लाला लाजपत राय का मौत का बदला लेने के लिए भगत, सुखदेव और राजगुरु ने अंग्रेज पुलिस अधिकारी जेपी सांडर्स की हत्या की थी.
2. फांसी के वक्त भगत सिंह की उम्र 24, राजगुरु 23 और सुखदेव की 24 साल थी.
3. जेल में अपने अधिकारियों की लड़ाई के लिए भगत सिंह ने अपने साथियों के साथ 64 दिन की भूख हड़ताल की थी.
4. कहा जाता है कि फांसी का समय 24 मार्च की सुबह तय की गई थी लेकिन किसी बड़े जनाक्रोश की आशंका से डरी हुई अंग्रेज़ सरकार ने 23 मार्च की रात को ही इन क्रांति-वीरों की जीवनलीला समाप्त कर दी.
फाँसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाये इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किये फिर इसे बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गये जहाँ घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा। गाँव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आये। इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गये। जब गाँव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो को एकत्रित करके पूरी विधि के साथ उनका दाह संस्कार किया।
भगत सिंह का आखिरी खत
फांसी से एक दिन पहले यानी 22 मार्च 1931 को अपने आखिरी पत्र में भगत सिंह ने इस बात का ज़िक्र भी किया था। भगत सिंह ने खत में लिखा, ‘साथियों स्वाभाविक है जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए। मैं इसे छिपाना नहीं चाहता हूं, लेकिन मैं एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूं कि कैद होकर या पाबंद होकर न रहूं। मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है। क्रांतिकारी दलों के आदर्शों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है, इतना ऊंचा कि जीवित रहने की स्थिति में मैं इससे ऊंचा नहीं हो सकता था। मेरे हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ने की सूरत में देश की माताएं अपने बच्चों के भगत सिंह की उम्मीद करेंगी। इससे आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना नामुमकिन हो जाएगा। आजकल मुझे खुद पर बहुत गर्व है। अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतजार है। कामना है कि यह और नजदीक हो जाए’।