एम4पीन्यूज|चंडीगढ़
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के नेतृत्व में मुस्लिम संघटनों ने शुक्रवार को लॉ कमीशन ऑफ इंडिया के चेयरमैन जस्टिस बीएस चौहान से मुलाकात की. बोर्ड ने जस्टिस चौहान को ट्रिपल तलाक और यूनिफॉर्म सिविल कोड पर कराए सर्वे का पूरा ब्यौरा दिया. बोर्ड ने कमीशन से कहा कि उसने करोड़ों लोगों से मुस्लिम पर्सनल लॉ पर राय ली है, और वो नहीं चाहते कि धार्मिक मामलों और पर्सनल लॉ से जुड़े मुद्दों यानी निकाह, हलाला और तीन तलाक पर सरकार कोई दखल दे.
पर्सनल लॉ बोर्ड के मुताबिक, चार करोड़ तिरासी लाख सैंतालीस हज़ार पांच सौ छियानबे मुसलमानों से इस मामले पर फॉर्म भरवाया. इसमें महिलाओं की संख्या दो करोड़ तिहत्तर लाख छप्पन हज़ार नौ सौ चौतीस है, जो कि पुरूषों से ज़्यादा है. दो करोड़ नौ लाख नब्बे हज़ार छह सौ बासठ पुरुषों ने फॉर्म भरा. सभी ने ट्रिपल तलाक का समर्थन किया और यूनिफॉर्म सिविल कोड का विरोध किया.
तीन तलाक को बताया सामाजिक बुराई
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य मुफ़्ती ऐजाज़ अर्शद क़ासमी ने कहा कि एक बार में तीन तलाक जो लोग कह रहे हैं, उस पर भी लोगों से पूछा गया. इस पर औरतों और मर्दों का कहना है कि ये एक समाजिक बुराई है. इसमें समाजी सतहों पर रोक-थाम होनी चाहिए. जो लोग ट्रिपल तलाक का गलत इस्तेमाल करते हैं, उनको सज़ा होनी चाहिए. इसके गलत इस्तेमाल की रोक-थाम होनी चाहिए.
गौरतलब है कि ट्रिपल तलाक और पर्सनल लॉ से जुड़े दूसरे मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ गर्मी की छुट्टियों में सुनवाई करेगी. केंद्र सरकार ने इस मामले में अपनी लिखित दलील अदालत में दे दी है और तीन तलाक को असंवैधानिक बताते हुए इसे महिलाओं के साथ असमानता करार दिया है. तो वहीं अब इस मामले में एक और पक्षकार जमीअत उलेमा ए हिंद ने भी अपनी लिखित दलील अदालत में दे दी है. जमीयत ने अदालत से कहा है पर्सनल लॉ खुदाई कानून है, और कोर्ट इसकी समीक्षा नहीं कर सकता. एक बार में तीन तलाक कहने को जमीअत ने गलत माना है लेकिन तीन तलाक को शरीअत का कानून मानते हुए किसी भी तरह के सरकारी या कोर्ट के दखल की मुखालिफत की है.
जमीयत उलेमा ए हिंद के वकील शकील अहमद ने कहा कि एक बार में तीन तलाक, तलाके बिदअत कहलाती है. जो इस्लाम के मुताबित देना नहीं चाहिए. हमारे यहां कई स्कूल ऑफ थॉट्स हैं. हनफ़ी स्कूल कहता है कि तीन तलाक एक साथ कहने से तलाक इफेक्टिव हो जाता है यानी शादी खत्म हो जाती है.
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जमीयत ने अपनी दलीलों में कहा है कि सुप्रीम कोर्ट सिर्फ उसी क़ानून को देख सकती है जो आर्टिकल 13 के अंदर कानून की परिभाषा में आता है. मुस्लिम पर्सनल लॉ खुदाई यानी डिवाइन लॉ है. ये लॉ आर्टिकल 13 के तहत नहीं आता. इसलिए सुप्रीम कोर्ट इसकी समीक्षा नहीं कर सकता और पहले भी ऐसे मौके आए हैं जब सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा करने से मना किया है. सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी कहा है कि किसी धर्म की सही प्रैक्टिस क्या है ये उसी धर्म के लोग ही तय करेंगे न कि कोई बाहरी एजेंसी. बहुत से मुसलमान ही शरिया क़ानून के बारे में नहीं जानते. स्थिति बेहतर करने के लिए इंटरनल रिफॉर्म्स की ज़रूरत है. जिसके लिए मुस्लिम तंजीमें कोशिशें कर रही हैं.
जमीयत के मुताबिम शरिया क़ानून बुरा नहीं है, लेकिन कुछ लोग इसका सही से पालन नहीं कर रहे हैं. जैसे बहुत से क़ानून हैं लेकिन लोग नहीं मानते, उसी तरह शरीया कानून है लेकिन लोग उसे सही से अमल में नहीं ला रहे हैं.