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कहते हैं कि जीते जी भले ही सारे इंसान बराबर न हों लेकिन मौत सभी को बराबरी पर लाकर खड़ा कर देती है. मौत न किसी आम आदमी को बख्शती है और न किसी वीआईपी को स्पेशल ट्रीटमेंट देती है. हालांकि हमारे समाज ने मौत के बाद भी स्पेशल स्टेटस को बरकरार रखने की पूरी कोशिश की है. वहां आज भी जातियों के हिसाब से श्मशान के हिस्से बंटे हुए हैं.
राजस्थान के उदयपुर में है ऐसा प्रचलन :
यदि आप राजस्थान के अशोकनगर श्मशान में यूं ही भटकते हुए पहुंच जाएं तो पाएंगे कि इस श्मशान का एक बड़ा हिस्सा काफी साफ सुथरा है. खूबसूरत टाइलें लगी हैं. राज्य के कुछ बड़े नेताओं के साथ-साथ स्वतंत्रता सेनानियों को यहां समाधियां हैं. इस मसले पर इतिहास की प्रोफेसर मीना गौड़ कहती हैं, अमर सिंह प्रथम (1559-1620) के दौरान आयड़ के महासतिया में राज परिवार के सदस्यों के दाह संस्कार के साक्ष्य हैं. यह राज परिवार के लिए रिजर्व होता है. हिंदुओं में अन्य जातियों के लिए कोई आवंटन तो नहीं था लेकिन परस्पर समझ, सहमति और सुविधा के हिसाब से यह व्यवस्था आगे बढ़ती गई और आज तक कायम है.
अलग-अलग जातियों के अलग-अलग श्मशान :
श्मशान में विभिन्न जातियों के अपने-अपने चबूतरे हैं. इनमें ब्राम्हण गौड़ समाज, जाट, सुथार, दाधीच, क्षत्रिय, पालीवाल, अहीर, वसीठा, लोहार और धोबी शामिल हैं. सिर्फ उदयपुर को ही देखें तो यह आंकड़ा 55 तक है.
मुस्लिमों के भीतर भी जारी है ऐसी व्यवस्था :
ऐसा नहीं है कि यह व्यवस्था सिर्फ हिन्दुओं के भीतर ही व्याप्त है. मुस्लिमों में बिरादरी के हिसाब से कब्रिस्तान बंटे हुए हैं. शियाओं और सुन्नियों के अलग-अलग कब्रिस्तान हैं. इसके अलावा लोगों ने बिरादरी के आधार पर भी कब्रिस्तानों का बंटवारा कर रखा है. बाहर से आकर बसे मुस्लिमों के लिए परदेशी कब्रिस्तान है.